जब एक सारस्वत ब्राह्मण को मिली इस्लाम की धमकी (अंतिम भाग)

भाग 1 और भाग 2 से आगे

शायद यह वह समय था जब मैंने दुनिया के लिए खुद को खोल दिया था. वेस्टर्न आइडियाज, वेस्टर्न हिस्ट्री, इंडियन माइथोलॉजी, इस्लामिक इतिहास और इसके आगमन, ईसाइयत और बाइबिल की रचना, क्रुसेड, यूरोपियन इतिहास और वह सब कुछ मैंने पढ़ना शुरू कर दिया जो आज के लिबरल दुनिया की परिचायक है. मैंने नए मित्र बनाएं जिन्होंने मुझे दुनिया के बाकी लेखकों की रचनाओं से परिचित कराया. कार्ल जंग की सोशल कमेंट्री, कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, मीन कंफ इत्यादि मेरे कुछ पहले राजनैतिक विचारकों में से एक थे जिनको मैंने पढ़ा. मैं वेस्टर्न विचारकों जैसे डेविड ह्यूम, विलियम जेम्स, एडवर्ड डी बोनो, ऑगस्टस डी मॉर्गन इत्यादि को भी पढ़ा. इनमें से सभी मेरे प्रिय थे. 

विलियम जेम्स की रचनाएं लोगों के व्यक्तित्व पर एक गहरा प्रभाव डालती थी. एक बड़े समय के लिए मेरे विचारों और मूल्यों में तथाकथित प्रोग्रेसिव विचार जैसे लिबर्टी, इक्वलिटी, फ्राटेर्निटी, डेमोक्रेसी और बाकी लच्छेदार अंग्रेज़ी शब्द घुस चुके थे. मेरी हिंदू परवरिश और आरएसएस प्रशिक्षण व्यक्तिगत योग्यता, मूल विचार और प्रयास को अत्यधिक महत्व देता है. दूसरे शब्दों में, इसे पुरुषार्थ (किसी व्यक्ति की कर्तव्य या क्षमता) कहा जाता है. एक व्यक्ति के अंदर मुख्यतः चार प्रकार की क्षमताएं होनी चाहिए. वे हैं: धर्म (गलत से सही बताने की क्षमता), अर्थ (सही माध्यम से पर्याप्त धन अर्जित करने की क्षमता), काम (सभी को प्राप्त करने की क्षमता, वह चीजें जो कि उत्कृष्टता के माध्यम से ही स्वयं प्राप्त होती हैं).

काम की पूर्ति एक व्यक्ति की व्यक्तिगत शक्ति का अलंकरण है. अंत में, मोक्ष (सभी भौतिकवादी चीजों से मानसिक मुक्ति. जब सभी इच्छाओं को पूरा किया जाता है, सभी कर्तव्यों का पालन किया जाता है और धन जमा होता है, व्यक्ति जीवन की निरर्थकता को समझता है). हालाँकि, पश्चिमी सामाजिक मानदंड मेरे लिए विदेशी थे. शराब, पार्टियों, महिलाओं के साथ संबंध, बॉल डांस आदि की अवधारणा ग्रामीण दक्षिण भारत में 19 साल के लड़के के दिमाग के लिए बहुत ही मनोरम थी. किसी भी मामले में, मैंने इसे पूरी दुनिया का पता लगाने और समझने के लिए एक बिंदु बना दिया था जो मेरी समझ के भीतर था. 

उसके बाद मैं अपने एक मुस्लिम सहपाठी के संपर्क में आया. मैं उसकि नाम यहां नहीं लेना चाहता. शुरुआत में हमारी बातें सिर्फ क्लासरूम तक ही सीमित रहती थी क्योंकि हम दोनों ही पढ़ाकू बालक थे. हमारे बीच नोट्स एक्सचेंज होते. हम एक दूसरे के डाउट्स भी क्लियर किया करते थे. जल्द ही यह चर्चाएं इंटेलेक्चुअल स्तर पर आ कर धार्मिक चर्चाओं तक पहुंच चुकी थी.  

एक बार उसने मुझे ज़ाकिर नाईक की लिखी हुई किताबें दी. वह बाइबिल और कुरान के बीच में एक तुलनात्मक अध्ययन का दावा करती है. ईमानदारी से बताऊँ तो वह आज तक की मेरी पढ़ी हुआ सबसे अतार्किक रचनाओं में से एक थी. यह मैं तब कह रहा हूँ जब मैं चेतन भगत की रचनाओं को भी पढ़ चुका था. हमारी चर्चा के दौरान एक बार मैंने उससे कहा कि मैंने आज तक कभी कुरान नहीं पढ़ी. उसने मुझसे कहा कि अगर मैं कहूँ तो वो मुझे उसकी एक कॉपी दे सकता है. मैने उससे कहा कि मैं बस अपने ‘एकेडमिक परपज़’ के लिए यह किताब चाहता हूँ, इससे अधिक कुछ नहीं. मैंने उस समय बिल्कुल ही यह आभास नहीं किया था कि मैं एक शैतान को बुलावा दे रहा हूं. दो दिन बाद उसने मुझे कुरान कॉपी गिफ्ट में दी.

मैंने कुरान पढ़ना शुरू किया, कभी अपने खाली समय में तो कभी कॉफी पीते समय. मैं उस किताब को किसी बहस में पॉइंट स्कोर करने के लिए नहीं पढ़ रहा था लेकिन मेरे मित्र ने मुझे इसको बहुत ध्यान से पढ़ने को बोला तो मैंने यह पढ़ना शुरू किया. कुरान सच में एक बहुत समस्या खड़ी करने वाली रचना है. एक कट्टर मौलवी के हाथों में यह एक विध्वंसक रचना बन जाती है. मैंने अपने मित्र को इस बारे में समझाने के लिए सुरा-अन-निसा (कुरान का एक भाग जिसमें औरतों और उनके जीवन जीने के नियमों के बारे में लिखा है) को समझाते हुए बताया कि कैसे यह औरतों के लिए सही नहीं है. इसके साथ ही हमने कई सवाल जवाब भी किये. मुझे यह समझने में काफी हफ्ते लग गए कि उसने ऐसा क्यों किया. 

एक शाम को जब मैं गायत्री मंत्र का जाप कर रहा था तब मैंने उसके द्वारा एक संदेश प्राप्त किया जिसमें वह पूछ रहा था कि क्या मैंने पूरी किताब पढ़ ली. सहमति के साथ मैंने जवाब दिया. फिर उसने मुझसे पूछा कि क्या मेरे उस किताब के बारे में कुछ सवाल हैं? मैं वह किताब पढ़ कर थक चुका था, तो मैंने यह सोचकर उसको ना में जवाब दिया कि वो इसके बाद मुझसे और कोई सवाल न पूछेगा और हमारे बीच अब कोई सवाल जवाब नहीं हो. लेकिन तब उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं भरोसा करता हूँ कि दुनिया में केवल एक ईश्वर है और वह अल्लाह है जिसके सिवा कोई भी पूजा करने योग्य नहीं है. मैंने कोई जवाब नहीं दिया. मैंने उससे पूछा कि आखिर वह मुझसे यह क्यों पूछ रहा है. उसने मुझे जवाब दिया कि यह उसका फ़र्ज़ है कि वह अविश्वास करने वालो को अल्लाह पर विश्वास करवाये और उसको समझाए. 

यह धर्मांतरण करवाने का एक स्पष्ट संकेत था. उसके बाद मैंने भी अपनी तैयारी की और उसको जवाब देना शुरू किया.मैंने उसे समझाया कि कैसे कुरान बहुत से भ्रमित करने वाले तर्कों से भरी हुई है और सुधार की गुंजाइश इसमें कितनी अधिक है. कुछ तर्क तो इतने अशुद्ध है कि यदि इसको शुद्ध नहीं किया गया तो यह आतंकवाद के समर्थकों के लिए कार्य कर सकती है.

उसने मुझसे कहा कि वह मेरे हर डाउट को दूर करेगा जिसके जवाब में मैंने उसे ना कह दिया. उसके बाद उसने मुझे चेताया कि मैं बहुत बड़ी गलती कर रहा हूँ. उसने मुझसे कहा कि अल्लाह ने मुझ जैसे काफ़िर को एक मुसल्लम ईमान बनने का अवसर दिया है जिसे मैं ठुकरा कर जजमेंट डे के दिन नर्क की आग में जलने का भागी बन रहा हूँ. इस के बाद मैंने हँसते हुए अपने कम्युनिकेशन स्किल्स का हवाला देते हुए उसको बताया कि अगर ऐसा होगा भी तो मैं उसके अल्लाह को यह समझाने में कामयाब हो जाऊंगा कि मैं निर्दोष हूँ. और यहां हमारी बातचीत खत्म हो गयी. लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई से मुझे रूबरू करा गया. 

व्यक्ति को इस कड़वे सच के बारे में जानना होगा. मेरी सोच साफ थी. एक धर्मपरायण ब्राम्हण परिवार से आने वाला लड़का जो आरएसएस से जुड़ा है, उसको कन्वर्ट कराने का उसका प्लान सच में बहादुरी वाला था. लेकिन ज़रा सोचिए कि यदि मैं उसके प्रोपगंडा में आ जाता तो? मेरे जैसा व्यक्ति जिसको ‘चड्डीधारी’ कहा जाता है, यदि वह ऐसे लोगों के चंगुल में फंस सकता है तो गैर राजनीतिक हिंदुओं का क्या होता होगा. वह जो अभी ‘मॉल कल्चर’ में जी रहे हैं, 21वी सदी के युवा हैं. क्या आपको नहीं लगता कि यदि उसकी बात मान लेता तो यह हमारे हिन्दू धर्म की कमज़ोरी को दर्शाता.

इसी के बाद मैं किसी भी मुस्लिम के साथ बातचीत करने से पहले अब खुद को सतर्क करता हूँ. मैंने यह नहीं कहा कि वह बुरे हैं. मैं उनके उस विचार की भर्त्सना करता हूँ जो ऐसे ज़हरीले वातावरण बनाते हैं. इसके बाद मैं आधे अधूरे मनगढ़ंत उस रचना की भी भर्त्सना करता हूँ जो कुरान में लिखी हुई है. उसमें सुधार की बड़ी गुंजाइश है. वो कथन जो व्यक्ति को हिंसा के मार्ग पर ले जाते हैं. वो आयतें जो उसे हिंसक बनाये. एक गौरवांवित हिंदू होने के नाते, भले ही हमारी रचनाओं को ‘आउट ऑफ कॉन्टेक्स्ट’ रखा गया, हमने कभी हिंसा को बढ़ावा नहीं दिया. मैं यह समझ सकता हूँ कि हिंदुओं की परिपक्व संस्कृति और मुसलमानों के रक्तरंजित इतिहास में क्या अंतर है.

1 Comment

  1. anurag
    April 17, 2019 - 5:45 am

    ऐसा ही अनुभव मेरे साथ भी हुआ है जब मैं मुखर्जीनगर में सिविल सर्विसेज की कोचिंग ले रहा था, बंगलुरू से आये मुस्लिम भाई जिनमें से एक उदारवादी लेकिन दूसरा बेहद कट्टरपंथी था, पढ़ा लिखा छात्र और कट्टरपंथी, मुझे याद है किस तरह उसने एक दिन संसद में आतंकी हमले को सही ठहराने की कोशिश की और हॉस्टल के अन्य छात्रों से मार खाते खाते बचा वो, टेस्ट में भी वो ये देखता था कि कहीं किसी मुस्लिम ने तो टॉप नहीं किया है, हलाल का मीट मुखर्जीनगर में नहीं मिलता था तो कोचिंग के व्यस्त दिनों में भी वो चांदनी चौक जा कर ही नॉन वेज खाते थे हलाल मीट की तलाश में, यहां तक कि उसने इस्लाम पर लिखी किताबें भी होस्टल में कइयों को गिफ्ट करने की कोशिश की,वाकई अनोखा अनुभव मेरे लिए जिसने मेरे सर से सेक्युलरिज्म का कीड़ा हमेशा के लिए निकाल दिया

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