बढ़ते चुनाव के साथ पिघलता महागठबंधन का फेविकोल!

तो भाई खबर यह है कि शत्रुघ्न सिन्हा अपनी बीवी पूनम सिन्हा के लिए लखनऊ में कैंपेनिंग करने पहुंच गए. इसकी खबर जैसे ही कांग्रेस के लखनऊ से प्रत्याशी प्रमोद कृष्णन को पहुंची उन्होंने तुरंत अपनी आवाज उठाई. कृष्णन ने कहा कि शत्रुघ्न सिन्हा को पहले पार्टी हित के बारे में सोचना चाहिए.

बिहारी बाबू ने सीधा इसका टका सा जवाब देते हुए यह बोल कृष्णन को खामोश कर दिया कि “पार्टी मेरे लिए प्रिय है, लेकिन परिवार पहले हैं”. शायद ही कांग्रेस को कभी इतना टका सा जवाब किसी नेता ने दिया होगा, बशर्ते वह गांधी परिवार का ना हो. यही वह सच्चाई है जिसके दम पर अमित शाह 300 से ऊपर सीट लाने की बात कह रहे हैं.

अगर आप महागठबंधन के मूल में जाएं तो आपको यहां मोदी विरोध के अलावा और कोई ऐसा फेविकोल नहीं मिलेगा जो महागठबंधन को चिपका कर रख सके. अगर आप बिहार में जाए तो असली महागठबंधन भाजपा और जेडीयू का है, ना कि आरजेडी और अन्य पार्टियों का.

बिहार से याद आया कि आज ही खबर आई है कि शकील अहमद कांग्रेस पार्टी से नाराज होकर अब निर्दलीय प्रत्याशी की तरह मधुबनी में चुनाव लड़ने जा रहे हैं. दरअसल महागठबंधन के फार्मूले के अनुसार मधुबनी का टिकट नई बनी पार्टी वीआईपी को दे दिया गया है . इसी बात से खफा शकील अहमद ने वहां से निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला किया है. कांग्रेस पार्टी की तरफ से शकील अहमद के ऊपर बड़ी कार्यवाही करने के संकेत मिल रहे हैं.

यदि आप उत्तर प्रदेश के अंदर देखें तो आजम खान का दिया हुआ बयान और मायावती के आए दिन दिए जा रहे सांप्रदायिक बयानों के कारण अखिलेश यादव असहज महसूस कर रहे हैं. आजम खान के दिए हुए शर्मनाक बयान पर अखिलेश यादव अपना मुंह खोलने को तैयार नहीं है. पिछली बार जब खोला तो ऐसा लगा जैसे वह आजम खान का समर्थन कर रहे हैं.

उनकी पत्नी डिंपल यादव ने भले ही इस एक घटना को निंदनीय कहा, लेकिन इसके पीछे उन्होंने “यह तो आम बात होती है” कहकर पलीता भी लगा दिया. अब समाजवादी पार्टी महिलाओं का कितना सम्मान करती है यह तो हमारे नेता जी ‘लडको की गलतियां गिनवा’ पहले ही बता चुके हैं. असल सच्चाई यह है कि बिना किसी एजेंडे के जमीन पर उतरी पार्टियां कभी भी सत्ता के स्वाद को लंबे समय तक नहीं चख पाती. इतिहास में ऐसे उदाहरण है जिसमें गठबंधन की सरकार तो बानी है, लेकिन निहित स्वार्थ के चलते वह एक भले हो गए उनकी सरकार का जीवन एक से लेकर डेढ़ साल से ज्यादा नहीं टिक पाया.

अंत में राष्ट्रीय पार्टियों का ही वर्चस्व स्थापित हुआ. देश की जनता वोट डालने से पहले एक बार यह जरूर समझ ले कि देश को इस समय एक मजबूत नेतृत्व की बहुत आवश्यकता है. वैश्विक परिस्थितियां जिस प्रकार से बनी है उस हिसाब से भारत को अपना सबसे मजबूत प्रतिनिधि चुनना है.

यदि महागठबंधन की सरकार बन भी जाए तो भी इसका जीवन लंबा नहीं चलेगा. इस एक्सपेरिमेंट को फ्लॉप होते हम इतिहास में ना जाने कितनी बार देख चुके हैं. जनता ज्यादा समझदार होती है तो हम सब जनता पर ही छोड़ते हैं. वैसे भी ईवीएम के बारे में अभी से ही हो रही शिकायतें हवा का रुख साफ कर रही हैं.

1 Comment

  1. Jan
    April 18, 2019 - 2:54 pm

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