क्योंकि राम केवल देना जानते हैं!

श्रीराम जन्मोत्सव पर मंदिर जाना हुआ. प्रत्येक आयुवर्ग के लोग, राम के सानिध्य में प्रसन्न थे. मन्दिर में नियमित आने वालों का जैसे वृहद परिवार एकत्र हुआ हो. सब आपस में सुख-दुःख बाँट रहे थे.

प्रसाद भोजन भी रहा. प्रौढ़ों से लेकर 5-6 वर्ष के बच्चे भी मनोयोग से परोसने में जुटे थे. नन्हे क्या परोसेंगे? प्लास्टिक का चम्मच, नमक, नींबू… मगर भोजन ग्रहण करने वालों को उनमें नन्हे से राम, नन्ही सीता मैया दिख रहे थे. प्रसन्नता कई गुना बढ़ जाती थी.

भाई ने कहा: “बच्चों में सामाजिकता का भाव लाने का, सबके लिए निस्वार्थ काम करना सिखाने का कितना अच्छा तरीका है ना?”

भारत के मंदिर, सबके लिए; विशेषतः महिलाओं के लिए बिना किसी मेम्बरशिप चार्जेज के हैप्पीनेस क्लब जैसे हैं जहाँ ईश्वर के साथ ही स्नेहमयी मैत्री भी मिलती है. भारत में (इंडिया में नहीं) आप अकेलेपन की शिकायत कभी नहीं कर सकते, जबतक आप स्वयं अकेलेपन की गुफा में छिपकर ना बैठना चाहें!

मैं सोच में डूब गई. वह क्या है जिसकी वजह से लाखों वर्ष बीत जाने के बावजूद किसी व्यक्तित्व का करोड़ों हृदयों में निवास है? क्यों अब भी कृतज्ञता में सबकी आँखें भर आती हैं? क्यों है इतना प्रेम, इतना सम्मान…. इतनी आस्था?

मेरे इन प्रश्नों के बीच, संसार को तारने वाला वह नन्हा सा, दोनों मुट्ठियाँ भींचे और आँखें मींचे अपने पालने में लेटा था.
क्या था उन नन्ही मुट्ठियों में?
शायद पूरी मानव जाति की श्रेष्ठता समाई हुई थी.
पुरुषार्थ था, सम्मान था, स्नेह था, अन्याय को मिटाने का संकल्प.. जन के प्रति अनंत स्नेह, पत्नी के प्रति अनन्य प्रेम, भाइयों के प्रति असीम वात्सल्य, देवी अहल्या जैसे अकारण दंड भोग रहे व्यक्तित्वों के प्रति सहानुभूति.. या शत्रु के मन को भी समझ लेने का औदार्य था.

मैं सम्पूर्ण मानव इतिहास में ऐसा व्यक्ति खोजने निकलती हूँ… नहीं मिलता !
अनन्य प्रेमी, अनुरागी भ्राता, स्नेही पिता, न्यायप्रिय राजा.. सब एक से बढ़कर एक मिले

मगर…..

वनवास देने वाली सौतेली माँ के पिता की भूमिका निभाने वाला पुरुष एकमात्र है.
सब तो कैकेयी के विरुद्ध हो चुके थे! महाराज दशरथ, दोनों माताएँ, मंत्रीगण, जनता और… उनके अपने पुत्र भी!!!

तब किसने कैकेयी के अपराध को पितृवत छिपा लिया था?

वह केवल और केवल राम ही हो सकता है!

राम ने स्वयं के लिए क्या रखा? वह केवल देना ही तो जानता है!
ऋषियों को दुष्टों से अभय दिया ,अहल्या को प्रतिष्ठा दी, पिता के वचन… और माँ के हठ के लिए सिंहासन त्याग, सुग्रीव को अन्याय से मुक्त कर राज्य दिया,
जनसामान्य को दानवों के आतंक से मुक्ति दी, विभीषण का राज्याभिषेक किया…

और यद्यपि, (वास्तविक) विद्वान अग्निपरीक्षा और सीता ‘त्याग’ को बाद में प्रक्षिप्त मानते हैं तो कुछ मानते हैं कि यह सीता की रक्षा के लिए उठाया गया कदम था.. उन्हें अपने राज्य से दूर, अज्ञातवास में सुरक्षित रखना.
फिर भी… फिर भी… यदि हम इसे मान भी लें तो भी राम यहाँ स्वयं के लिए क्या रखते हैं?

वे यहाँ भी सारी महिमा, सारा श्रेय, सारी प्रतिष्ठा श्री सीता के लिए छोड़, स्वयं के सर पर लांछन ले लेते हैं और सीता.. मानवता की ‘माँ’ के रूप में प्रतिष्ठित होतीं है. आने वाली करोड़ों पीढ़ियों तक उनकी संतानें, अपनी माँ को त्याग देने पर राम को लताडती चली जातीं है… बदले में राम स्नेह देते हैं सबको!
शम्बूक वध भी मूल रामायण में कहीं नहीं है. मगर राम के नाम से शम्बूक भी प्रतिष्ठा पा जाते हैं. उत्तरवर्ती (या कहें आधुनिक) ‘गल्प’कथाओं में राम ने वह लांछन भी अपने सर ले लिया है.

एक स्मृति साझा करती हूँ:

2 वर्ष पूर्व रामनवमी पर.. तब माँ का ईश्वर से भयंकर वाला झगडा चल रहा था. मैंने पूछा: “मंदिर चलोगी?” वह भड़क उठी: “क्यों जाऊं? उसने ये… उसने वो… ऐसा.. वैसा…”
मैं हंस पड़ी: “अरेरे! अभी-अभी तो हुआ है वह! इतना सा है”

उस आग्नेय मुद्रा पर अचानक वात्सल्य उमड़ पड़ा: “कितना छोटा सा होगा, नहीं? नन्हा, नील- गुलाबी, नर्म सा”

और वह नन्हे से राम को आँचल में भरकर खेलाने लग गईं 🙂

अब बताइए.. राम को भारत के ह्रदय से कैसे मिटा सकता है कोई?

वह नन्हा सा एक तिरपाल में है. चिलचिलाती गर्मी में बैठा वह अबोध शिशु संसार को संबल दे रहा है.

क्योंकि राम केवल देना जानते है.

मेरे राम.. श्री राम.
जयतु! जयतु! जयतु!


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