लोकतंत्र में विभिन्न मुद्दों पर चर्चाएं होती हैं. यहां दूसरे की बातों को उतनी ही ध्यान से सुना जाता है जितने ध्यान से अपनी बातों को रखा जाता है. विचारों के मंथन के बाद राष्ट्र के लिए जो बेहतर हो उसी पर विचार कर एक निर्णय लिया जाता है. दुनिया में सभी बड़े प्रजातंत्र में इस बात को स्वीकार गया है. यहां विचारों की भिन्नता राष्ट्र के लिए व्यक्ति के समर्पण को कम नहीं करती है. परंतु जब लोकतंत्र के इस एक विचार को ही प्रश्नों के घेरे में डाला जाने लगे, दूसरे के विचारों को निम्नस्तर वाले और राष्ट्र के लिए खतरा बताया जाने लगे, तब स्वस्थ्य लोकतंत्र की आत्मा पर असर पड़ता है. यही विचार हमारे देश में भी उत्पन्न हो रहा है जिसकी जड़ों को अभी नहीं हटाया गया तो यह एक विषाक्त पेड़ के रूप में हमारे देश में खड़ा हो जाएगा. JNU से इसके बीज पड़ भी चुके हैं.
भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जिस प्रकार से एक अछूत व्यवस्था के तौर पर देखा जाता है, वह निश्चित रूप से इस लोकतंत्र की आत्मा पर कुठाराघात है. आपके विचारों की भिन्नता स्वीकार है. आपके द्वारा शब्दों की मर्यादा के अंदर तंज भी स्वीकार किये जा सकते हैं. मगर जब आप उस भाषा के बंधन को तोड़कर यह कहने लगे कि देश में एक विचार ऐसा भी है जिसकी स्वीकार्यता नहीं होनी चाहिए तो वहां स्थितिया बिगड़ती हैं.
सोच कर देखिये की देश में क्यों एक विचार को कुजात दृष्टि से देखा जाता है. उन लोगों द्वारा भी जो लिबरल हैं. उनका बस चले तो संघ और भाजपा के खिलाफ पूरा ग्रन्थ लिख डाले. लिखा ही होगा किसी न किसी ने, लेकिन उसका उद्देश्य क्या है. जहां देश के टुकड़े-टुकड़े करने की बात को भी अभिव्यक्ति की आज़ादी के बैनर तले रखा जाता है वहीं।राष्ट्रवाद की बात करने वालों को दोयम दर्जे के विचारों की तरह देखा जाता है. जबकि लॉजिक यही कहता है कि होना ठीक इसके उलट चाहिए था.
देश में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो यह मानता हो कि उसकी विचारधारा सर्वोच्च है. कोई मानता भी होगा, तब भी यह सत्य नहीं है. हर विचारधारा के मध्य कुछ गांठे होती हैं जिनको सामान्य चर्चाओं द्वारा ही खोला जा सकता है. लेकिन जब कोई चर्चा को ही तैयार न हो तो कहां से उनको यह समझाया जाए कि आप लोकतंत्र के विचार पर प्रहार कर रहे हैं. भाजपा और संघ के लोगों के साथ मिलने से इनकार. उनके विचारों को सुनने योग्य न समझना. उनको लगातार अंग्रेजों का हितैषी बताना जबकि अंग्रेज़ो के ही बहकावे में देश के तथाकथित सेक्युलर नेतृत्व ने देश का बंटवारा कर डाला था. यहां तक कि दक्षिणपंथी विचारधारा के समर्थकों द्वारा बनाई गई फ़िल्म को बॉयकॉट करना. यह बोलकर की इसमें तनिक भी ऐतिहासिक सच्चाई नहीं है. यह सभी देश में एक गलत संदेश देते हैं.
सोच कर देखिये की इतिहास के बारे ने आपको कहाँ से ज्ञान प्राप्त होता है. जब आप पढ़ते हैं. आप जिनकी किताबें पढ़ते हैं, उसी के अनुसार आपका ऐतिहासिक ज्ञान बढ़ता है. लेकिन किसी भी इतिहासकार की लेखनी पत्थर की लकीर नहीं होती. उनकी लेखनी में भी एक सुधार की गुंजाइश होती है क्योंकि हर इतिहासकार किसी घटना को अपने नज़रिए से देखता और लिखता है. उसका नज़रिया सर्वस्वीकार्य हो यह आवश्यक नहीं है. लेकिन जब आप उसी को पत्थर की लकीर मानकर दूसरी विचारधारा को ताना मारते हैं, तब लोकतंत्र में उस विष की उत्पत्ति होती है जो आजकल हम टीवी चैनलों की डिबेट, आम चर्चाओं और राजनैतिक छींटाकशी में देखते हैं.
न्यूटन का सिद्धांत है कि ‘एवरी फ़ोर्स हैज एन इक्वल एंड ऑपोज़िट रिएक्शन’ यानी एक्शन का रिएक्शन होता है. यही बात तो अब यहां भी लागू होती है. दक्षिणपंथ की विचारधारा को मानने वाले लोग जब लव जिहाद के नाम पर फिल्मों का बॉयकॉट करते हैं, जब किसी नेता के विचारों को तरजीह नहीं देते, जब देश के टुकड़े-टुकड़े करने वालों को सुनना भी पसंद नहीं करते हैं तो आपके लिए वो असहिष्णु हो जाते हैं, जबकि आप ये भूल जाते हैं कि उसका प्रथम बीज तो आपने ही बोया था. जब आप किसी को सुनने को तैयार नहीं. उसके विचारों को सम्मान नहीं दे सकते. उसके मानने वालों को ‘भक्त’ कहते हैं तब आप कैसे यह सोच सकते हैं कि दूसरा आपको सम्मान देगा. आपका ऐसा सोचना भी आपकी सामान्य बुद्धि पर प्रश्नचिन्ह लगाता है.
लिबरल विचारधारा की भी एक सीमा होती है. उसके आगे आपको कोई दूसरा रुख अख्तियार करना पड़ता है. युद्ध भूमि में भी सेना लिबरल विचारों के साथ नहीं बल्कि इंट का जवाब पत्थर से देने वाली सोच के साथ लड़ती है. लेकिन देश के अंदर उसी चीज़ को कुछ लोग ‘हाइपर नेशनलिज़्म’ कह देते हैं. सच्चाई यह है कि इसी को ‘असली असहिष्णुता’ कहते हैं.