फिल्मी जगत ने जिस दिन से पाकिस्तानी कलाकरों के साथ काम करने से मना किया है, उस दिन से कोई न कोई बड़ा बॉलीवुड सुपरस्टार यह कहता हुआ पाया गया कि वो पाकिस्तान के किसी भी कलाकार के साथ काम करने में उत्सुक नहीं है.
अजय देवगन ने तो अपनी आने वाली फिल्म ‘टोटल धमाल’ को पाकिस्तान में रिलीज़ करने से ही मना कर दिया है. यहां तक फिर भी सब कुछ सही चल रहा था, लेकिन जैसे ही सलमान खान के द्वारा उनकी आने वाली फिल्म ‘नोटबुक’ से आतिफ असलम को हटाने का निर्णय लिया गया, प्रशंसकों द्वारा उनको ‘देव पुरुष’ सिद्ध करने के अभियान चला दिए गए. वैसे भी ‘भाई’ की जेल यात्रा को भी मीडिया ऐसे दिखाता रहा है, जैसे ‘शूटिंग’ में वो ओलंपिक्स का स्वर्ण पदक जीत कर आये हो.
वस्तुतः यह वही सलमान खान है जिन्होंने पूर्व में यह कहकर पाकिस्तानी कलाकरों पर प्रतिबंध लगाने के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई थी कि ये तो केवल कलाकार हैं, इनका सियासत से क्या लेना देना?’ उनकी बात एक सीमा तक सही भी है. पाकिस्तान से आने वाले कलाकार तो बस कलाकर ही हैं, जो अपना काम यहां करते हैं, और मोटा मुनाफा कमाकर पाकिस्तान चले जाते हैं. इनमें उनका क्या कुसूर यदि सियासी लोग आपस में नूराकुश्ती करते हैं.
यदि यह बात मान भी लें कि एक कलाकार और एक नागरिक दो अलग अस्तित्व हैं, तो इन दोनों अस्तित्वों के एक लक्ष्य की सच्चाई को कैसे झुठलायेंगे. यही लोग अपना पैसा पाकिस्तान में निवेश करते हैं, जिस पैसे से बनी गोली से हमारे सैनिकों पर उनकी सेना द्वारा हमला किया जाता है. तो फिर यह दो अलग अस्तित्व कैसे हो जाते हैं? और उससे भी बड़ी बात यह कि आज ऐसी क्या ज़रूरत आ पड़ी कि आपको आतिफ असलम को अपनी फिल्म से हटाना पड़ा? वैसे यह एक अच्छा निर्णय है, लेकिन जिस व्यक्ति द्वारा हम पाकिस्तानी कलाकारों के समर्थन में व्यक्तव्य सुन चुके हैं, वो ऐसा करे तो संदेह होता ही है. कहा जा रहा है कि यह पुलवामा में हुई हिंसा के बाद लिया गया एक बड़ा फैसला है. यदि ऐसा है तो फिर उरी के समय यह फैसला क्यों नहीं लिया गया? या पठानकोट के समय? या उससे पहले 26/11 के हमले के समय?
असल बात यह है कि इस ‘परसेप्शन’ वाली रेस में कोई पीछे नहीं दिखना चाहता है. जब इंडस्ट्री में सब यही कर रहे हैं, तो उसी चीज़ को करना सबकी मजबूरी बन जाती है. सलमान खान के केस में भी यही हुआ है. सीधी सी बात है कि एक ही इंडस्ट्री में कोई ‘आइसोलेट’ नहीं होना चाहता है. वैसे भी पूरे देश के अंदर जो आक्रोश उमड़ पड़ा है, उसको देख कर खुद सलमान खान ने भी यही सोचा होगा कि इससे पहले लोहा ठंडा हो, हथौड़ा मार दो. सो मार दिया गया. प्रशंसकों की भीड़ में हल्ला भी हो गया. ‘प्राउड ऑफ यू सलमान’ और ‘लव यू भाईजान’ जैसे कमेंट्स आपको विभिन्न सोशल मीडिया साइट्स पर मिल जाएंगे.
हम उन प्रशंसकों की भावनाओं का पूरा आदर करते हैं, लेकिन एक प्रश्न भी पूछना चाहते हैं. आखिर क्यों आपने अपनी बुद्धि कुछ फिल्मी सितारों के पास ‘बंधक’ रख दी है. किसी को अपना वैचारिक आदर्श बनाने से पहले एक बार उसके विचारों को परख तो लिया करें. यहां व्यक्तिगत रूप से सिर्फ सलमान खान की ही बात नहीं हो रही, अपितु उस पूरे बॉलीवुड जगत की बात हो रही है जिसको देश के युवाओं का एक बड़ा वर्ग अपना आदर्श मान बैठा है. उनके द्वारा पहने हुए कपड़ों से ले कर उनके डायलॉग्स पर करोड़ो रुपये स्वाहा कर देने की एक पुरानी परंपरा चली आ रही है. किसी ने अपने पसंदीदा सितारे से सवाल पूछने की हिम्मत भी कभी नहीं जुटाई कि आखिर क्यों बड़ी संख्या में पाकिस्तानी कलाकारों को भारत में काम दिया जाता है.
पुलवामा हिंसा के पांच दिन बाद जागे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान की धमकी वाले वीडियो की वहाँ का कलाकर अली ज़फ़र ‘व्हाट ए स्पीच’ बोलकर प्रशंसा करता है. इसमें उसकी गलती नहीं है, अपितु हमारी गलती है. वो जन्म से पाकिस्तानी है, तो अपने देश की बड़ाई तो करेगा ही न? पाकिस्तानी इंडस्ट्री को अभी हमारे बॉलीवुड की तरह ‘उदारवाद’ के कीड़े ने नहीं काटा है. सवाल हमारे यहां के कलाकारों से पूछा जाना चाहिए कि आखिर वह पाकिस्तानी कलाकरों के लिए इतने पागल क्यों है.
तथ्यात्मक रूप से भी यदि बात करें तो भी हमारे गले पाकिस्तानी कलाकारों के लिए बॉलीवुड का यह ‘अनकंडीशनल’ प्रेम गले नहीं उतरता है. अगर हम व्यापार के मामले में भी बात करें तो सबसे ज़्यादा फायदा इसमें पाकिस्तान का ही है. उसकी फ़िल्म इंडस्ट्री में बनी फिल्मों को खुद वहां के लोग ही नहीं देखते हैं. अर्थव्यवस्था की हालत इतनी खस्ता है कि सऊदी के प्रिंस से 20 अरब डॉलर का पारितोषक लेने के लिए उनके यहां का वजीर-ए-आजम सऊदी के प्रिंस का ड्राइवर बन जाता है. ऐसी स्थिति में भी यदि पाकिस्तानी कलाकरों को यहां बुलाकर काम दिया जाता है तो प्रॉफिट के संदर्भ में भी भारत को कोई खास फायदा नहीं है.
‘प्रोडक्ट क्वालिटी’ और ‘प्रोडक्ट क्वांटिटी’ के हिसाब से भी देखेंगे तब भी जो चीज़ हमें पाकिस्तान से मिल रही है, वो हमारे यहां ‘सरप्लस’ में है. हमारे यहाँ कलाकरों की कोई कमी नहीं है. उल्टा हर टीवी चैनल पर एक सिंगिंग रियलिटी शो खत्म नहीं होता कि दूसरा शुरू हो जाता है. हीरो/हीरोइन बनने के लिए भी करोड़ों युवा भरी हुई ट्रेनों के धक्के खाकर मुम्बई पहुंचते हैं ताकि किसी डायरेक्टर की नज़र पड़ जाए. पाकिस्तान में ऐसा भी कुछ नहीं है जो ‘सिर्फ’ पाकिस्तान में ही मिलता हो. जैसे उसके पास कोई ऐसी टेक्नोलॉजी होती जो दुनिया में किसी के पास न हो, या ऐसी कोई कला होती जो दुनिया में कहीं भी नहीं मिलती हो. उल्टा वो सारी चीजें भारत के अंदर उससे बेहतर ‘क्वालिटी’ में मिलती है. फिर भी पाकिस्तानी कलाकरों के लिए यह आतुरता क्यों है, यह समझ से बाहर की बात है.
बात सीधी और स्पष्ट है. जब आप अपनी वैचारिक क्षमता को एक कलाकार के आगे समर्पित कर देते हैं, तब राष्ट्रवाद की आवाज़ आपकी आत्मा को जगाने के लिए चींख उठती है. भारत के असली हीरो हमारे देश के जवान है. निश्चित रूप से जीवन में मनोरंजन एक आवश्यक अंग है, लेकिन किसी भी राष्ट्र की सुरक्षा ‘रील’ नहीं बल्कि ‘रियल’ धरातल पर होती है.
सीमा के अंदर मनोरंजन जगत का अपना एक महत्व है, लेकिन वो तभी है जब तक देश है. किसी भी राष्ट्र के स्वाभिमान में निर्णायक भूमिका उसकी सेना की ही होती है. कलाकार की ‘कला’ का अस्तित्व भी एक सैनिक के अस्तित्व पर निर्भर रहता है. देरी से ही सही, परंतु सलमान खान और बॉलीवुड के इस निर्णय का हम स्वागत करते हैं. सनद रहे कि इस बड़े आघात को हमेशा याद रखा जाना चाहिए.